The thought is very disjointed and i feel does not fully convey what i want to say...
रात को एक खिड़की से देखा तो बस रात इतनी गहरी थी की ऐसा लगा की रात की गहराई मी अंदर उत्तर गयी है...मॅन में एक हलचल सी हुई और ऐसा लगा की किसी तरह अपने को देखूं रात के बिना...फिर ऐसा लगा की रात की परतें हैं मेरे चेहरे पे और शायद और अगर में रात की परतें उतार दूं तो रात मुज़से अलग हो जाएगी...एक एक करके में रात की परतें उत्तार ने लगती हून अपने चहेरे से...पर परतें ख़तम ही नहीं होती...रातें ख़तम हो जाती हैं पर रातों की परतें अभी भी वहीं हैं...
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