Tuesday, July 12, 2011

फ़िराक...

The biggest loss is the loss of innocence...

वही झरोखों पर पड़ी एक काली परत...
ज़िन्दगी के कुछ लम्हों से
उधार ली रौशनी तक नहीं झाक पाती है उन मैले कुचेले पर्दों से
रात की परतें मैं हटाती रहती हूँ अपनी हथेलियौं से
मंटो की कहानियों के शब्द आज भी मेरी पेशानियौं पे दस्तक दे रहे हैं
उसकी भू अब भी शायब मेरे जिस्म से ही आ रही है
एक वही स्याह परत फिर से थी दिल्ली की गलियौं में
अभी जैसे कल की ही बात हो
माँ चुप करा देती थी अपने घर के चौराहे पे
जैसे किसी की मज़ार पे नमन कर रहे हो
गुरुद्वारा हुआ करता था वहां पे, १९८४ से पहले
और फिर वही परतें
गुजरात की गलियों में
कहीं कुछ नहीं बदला
तारिकों के अलावा...

Friday, July 1, 2011

कुछ यूँ भी तो हो

कुछ यूँ भी तो हो
तेरे सामने बैठ कर भी हम कुछ कह पाएं
आँखों से टपकती बूंदों के
कुछ माने समझा पाएं
कुछ यूँ भी तो हो
दिल की जो आरज़ू कभी कही न गयी हमसे
इस बार तेरे हाथों पर
बे-झिझक ही लिख जाएँ
कुछ यूँ भी तो हो
अपनी गरज में ही सही लेकिन
इस बार तेरे कदम
मेरे दर पर आके रुक जाएँ
कुछ यूँ भी तो हो...