Sunday, June 19, 2016

माज़ी

आब ओ अब्र के दरमियाँ
वो वहां के मुझे पता नहीं
साहिल की तरफ रुख था मेरा
कश्ती जैसे आप ही पानी पे चल रही हो
अजीब सा सुकून था
जैसे मंज़िल दुर नहीं मेरे पास ही थी
ना हम-साज़ , ना कोई हम-राह
मेरा सफर और मेरी मंज़िल
ऐसा लगा जैसे एक  ज़माना बीत गया हो
या फिर कल की ही कोई बात हो
....
अंजान थी मैं...या फ़िर बेपरवाह
उस कश्ती को रफ़ीक़-ए -रूह समझी
जो कश्ती माज़ी के सिफ़र में ग़ुम थी