The thought is very disjointed and i feel does not fully convey what i want to say...
रात को एक खिड़की से देखा तो बस रात इतनी गहरी थी की ऐसा लगा की रात की गहराई मी अंदर उत्तर गयी है...मॅन में एक हलचल सी हुई और ऐसा लगा की किसी तरह अपने को देखूं रात के बिना...फिर ऐसा लगा की रात की परतें हैं मेरे चेहरे पे और शायद और अगर में रात की परतें उतार दूं तो रात मुज़से अलग हो जाएगी...एक एक करके में रात की परतें उत्तार ने लगती हून अपने चहेरे से...पर परतें ख़तम ही नहीं होती...रातें ख़तम हो जाती हैं पर रातों की परतें अभी भी वहीं हैं...
Sunday, April 26, 2009
Saturday, April 11, 2009
छुपाया तो मैने ही था कहीं...
I think its very wannabe but since i wrote it i am posting it...
छुपाया तो मैने ही था कहीं
चीनी के डब्बे के पीछे
रात के सिरहाने के नीचे
एक पुरानी किताब के पन्नों के बीच में
या फिर बर्गद के पेड़ की जड़ों की ओट में
सपनों के सपनों में
तेरे कुछ कहने के इंतेज़ार में
छुपाया तो मैने ही था कहीं...
छुपाया तो मैने ही था कहीं
चीनी के डब्बे के पीछे
रात के सिरहाने के नीचे
एक पुरानी किताब के पन्नों के बीच में
या फिर बर्गद के पेड़ की जड़ों की ओट में
सपनों के सपनों में
तेरे कुछ कहने के इंतेज़ार में
छुपाया तो मैने ही था कहीं...
Monday, April 6, 2009
सफेद इन्द्राधनुष...
कितने दिनो से सोच रहीं हूँ की कुछ लिखूं...एक सपना जो एक रात को देखा था और जो मेरे ज़हन पे एक तस्वीर छोड़ गया...शायद अगर में कलाकार होती तो इस सपने को रेखाओं में खीच कर एक कॅन्वस में उत्तार देती... शायद शब्दों में वो सपना गुम ना हो जाए...कोशिश करती हूँ
मैनें देखा एक मिट्टी के मटकी रखी है...और उसमे इन्द्राधनुष के रंग भरे हैं...मैं उस मटकी के पास एक सफेद रंग की सारी पहने खड़ी हून...और मेने अपने सारी के पल्लू को उस मटकी में डोबोया...पल्लू मटकी से बाहर निकाला तो देखा की पल्लू अभी भी सफेद है...मैं परेशान होकर पल्लू ज़ोर से ज़टकने लगती हून और देखती हून कि रंगों की बूँदें पल्लू में से गिर रहीं हैं पर मेरी सारी का पल्लू अभी भी सफेद है...
मैनें देखा एक मिट्टी के मटकी रखी है...और उसमे इन्द्राधनुष के रंग भरे हैं...मैं उस मटकी के पास एक सफेद रंग की सारी पहने खड़ी हून...और मेने अपने सारी के पल्लू को उस मटकी में डोबोया...पल्लू मटकी से बाहर निकाला तो देखा की पल्लू अभी भी सफेद है...मैं परेशान होकर पल्लू ज़ोर से ज़टकने लगती हून और देखती हून कि रंगों की बूँदें पल्लू में से गिर रहीं हैं पर मेरी सारी का पल्लू अभी भी सफेद है...
ज़िंदगी जी लेते बस...
कभी कभी लगता है
ज़िंदगी जी लेते बस
गर्म गर्म शाख पर
पत्ते पिरों लेते बस
ठंडी नीली ल़हेरॉं पर
चाँद सूखा लेते बस
कभी कभी लगता है
ज़िंदगी जी लेते बस...
ज़िंदगी जी लेते बस
गर्म गर्म शाख पर
पत्ते पिरों लेते बस
ठंडी नीली ल़हेरॉं पर
चाँद सूखा लेते बस
कभी कभी लगता है
ज़िंदगी जी लेते बस...
Catch 22...
There is very strange thing about friendship…the moment you let ego come in…you might as well call it quits…but the catch 22 is that all the people sharing the bond need to keep ego aside…even if not at the same point at least in turns…if the burden of doing that is only on one person then that does not work..
Why did I call it catch 22 is because “not letting ego come in” is absolute and not selective…so ideally you should be able to keep it out all the time…but we do not live in the ideal world and are not perfect…
Why did I call it catch 22 is because “not letting ego come in” is absolute and not selective…so ideally you should be able to keep it out all the time…but we do not live in the ideal world and are not perfect…
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