Thursday, April 8, 2010

आईना...

आसिम है मेरा या मेरा रफीक...
मेरे एहसास से अलग तो नहीं...
खुली नज़रों से देखा कोई सपना शायद..
मेरी आरज़ू का कातिब शायद...
मेरा वजूद उससे जुदा तो नहीं...
लिखता है वो काफूर सा मेरा अफसाना...
कागज़ नहीं कलम भी नहीं...
मदहोश हूँ मैं मेरी ही आज़ में...
वो नहीं तो फिर मैं भी नहीं...

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