Tuesday, July 20, 2010

हिसाब...

एक पहर की बात है यह
या चार पहर, कुछ पता नहीं...
हिसाब कर रहा था वो मेरे सामने
जाने क्या लिखा था उसकी किताब में
उसकी कलम से नज़र हटती ही नहीं थी
आखिर बेताब होकर मैंने पूछ ही डाला...
क्या लिख रहे हैं जनाब
वो मुस्कराते हुए उंगलियाँ गिनने लगा
मैंने फिर कोशिश की...
मैं कुछ गिनती करूं
उसके चेहरे का ताब कुछ अलग ही था
वोह मुझे ऐसे देख रहा था
की मेरे दिल की गहराई पिघल कर उसकी हथेलियौं में समा गयी...
मैंने फिर से उसकी किताब में झाका तो,
उसने खुद ही अपनी किताब मुझे सौप दी
मैंने देखा...बड़ा अटपटा सा लगा...
अरे इस हिसाब में तो कुछ नफ़ा ही नहीं,
सिर्फ नुक्सान ही है मैंने पुछा,
मुझसे क्या पूछ रही है पगली...
मैंने कोई गलती नहीं की जोड़ने में...
तेरे ही दिल से पूछ...
उसी की ही तिशनगी का हिसाब है...

1 comment:

manu-smruti said...

awesoooooooommmmmmmmmeeeeee! what lovely thoughts.