लिखना चाहा तेरी यादों को,
कुछ कही अनकहीं बातों को,
रेत के टीलों पे गुज़री शामों को,
रात से शर्माती सुबह को,
लिखना तो चाहा था...
यादों को लिखने लगी तो लगा...
मेरी कलम तेरा वजूद बन गयी है...
और स्याही में जैसे मेरी आज़ घुल गयी है...
दानिस्तः मैंने कलम को स्याही में डूबोया...
कलम जड्कने लगी तो स्याही और कलम जैसे एक हो गए थे...
फासला करती भी तो कैसे...
फिर सोचा की टीले पर जाकर वही सूरज को रेत में बदलते देखती हूँ...
शायद कुछ कह पाऊँ...शायद कुछ लिख पाऊँ...
पर सूरज की भी जात देखो...
उस दिन कम्भक्त ढला ही नहीं...
बस अपनी गर्मी चाँद को सोपकर जाने कहाँ गुम हो गया...
और में इंतज़ार करती हुई उसके पाऊँ के निशान भी ना देख पायी..
रात का आखरी पहर बचा था...
वोह भी बस चाँद का हाला बनकर मुस्कुराती सी मेरा हाथ छोड़कर चलदी...
सुबह तो वैसे भी रात की जाई है...
क्या कहती और क्या लिखती...
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